Mazdoor Bigul
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देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करने का एक प्रयास
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🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविताओं के साथ 📚
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एदु
आर्दो गालेआनो की कविता — दुनिया भर में डर
📱 http://unitingworkingclass.blogspot.com/2018/06/eduardo-galeanos-poem-global-fear.html
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जो
लोग काम पर लगे हैं वे भयभीत हैं
कि उनकी नौकरी छूट जायेगी
जो काम पर नहीं लगे वे भयभीत हैं
कि उनको कभी काम नहीं मिलेगा
जिन्हें चिंता नहीं है भूख की
वे भयभीत हैं खाने को लेकर
लोकतंत्र भयभीत है याद दिलाये जाने से और
भाषा भयभीत है बोले जाने को लेकर
आम नागरिक डरते हैं सेना से,
सेना डरती है हथियारों की कमी से
हथियार डरते हैं कि युद्धों की कमी है
यह भय का समय है
स्त्रियाँ डरती हैं हिंसक पुरुषों से और पुरुष
डरते हैं निर्भय स्त्रियों से
चोरों का डर, पुलिस का डर
डर बिना ताले के दरवाज़ों का,
घड़ियों के बिना समय का
बिना टेलीविज़न बच्चों का, डर
नींद की गोली के बिना रात का और दिन
जगने वाली गोली के बिना
भीड़ का भय, एकांत का भय
भय कि क्या था पहले और क्या हो सकता है
मरने का भय, जीने का भय.

Eduardo Galeano's Poem - Global Fear

Those who work are afraid they’ll lose their jobs.
those who don’t are afraid they’ll never find one.
Whoever doesn’t fear hunger is afraid of eating.
Drivers are afraid of walking and pedestrians are afraid of
getting run over.
Democracy is afraid of remembering and language is afraid
of speaking.
Civilians fear the military, the military fears the shortage of
weapons, weapons fear the shortage of wards.
It is the time of fear.
Women’s fear of violent men and men’s fear of fearless
women.
Fear of thieves, fear of the police.
Fear of doors without locks, of time without watches, of children
without television; fear of night without sleeping pills and day
without pills to wake up.
Fear of crowds, fear of solitude, fear of what was and what
could be, fear of dying, fear of living
🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कहानियों के साथ 📚
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विश्‍व प्रसिद्ध कहानीकार लू शुन की लघु कथा - अक्‍लमंद, मूर्ख और गुलाम
🖥 This story is available in English as well. To read please visit this link - http://www.mazdoorbigul.net/archives/10532
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एक गुलाम हरदम लोगों की बाट जोहता रहता था, ताकि उन्‍हें अपना दुखड़ा सुना सके। वह बस ऐसा ही था और बस इतना ही कर सकता था। एक दिन उसे एक अक्‍लमंद आदमी मिल गया।
“मान्‍यवर!” वह उदास स्‍वर में रोते हुए बोला, उसके गालों पर आंसुओं की धार बह चली, “आप जानते हैं, मैं कुत्‍ते की जिन्‍दगी जी रहा हूँ। मुझे दिन भर में एक बार भी खाना नसीब नहीं, और अगर मिलता भी है तो बस वही बाजरे की भूसी, जिसे सुअर भी नहीं खाता। और उसकी भी क्‍या कहूं जो एक छोटी कटोरी भर से ज्‍यादा नहीं मिलती...।”
“यह तो वाकई बहुत बुरा है,” अक्‍लमंद आदमी ने सहानुभूति जतायी।
“और क्‍या?”, वह कुछ उत्‍तेजित हो उठा, “जबकि मैं सारा दिन और सारी रात खटता रहता हूँ। पौ फटते ही मुझे पानी भरना पड़ता है, सांझ को मैं खाना पकाता हूँ, सुबह मैं सौंपेे गये काम निपटाता हूँ, शाम को मैं गेहूँँ पीसता हूँ, जब मौसम अच्‍छा होता है तो मैं कपड़े धोता हूँ, और जब बारिश होती है तो मुझे छाता थामना पड़ता है, जाड़े में मैं अंगीठी सुलगाता हूँ, और गर्मी में पंखा झलता हूँ। आधी रात को मैं खुम्मियां उबालता हूँ और जुआरियों की पार्टियों में व्‍यस्‍त अपने मालिक का इन्‍तजार करता हूँ। लेकिन कभी मुझे कोई बख्‍़शीश नहींं मिलती, बस जब-तब चाबुक ही खानी पड़ती है...। ”
“मेरे प्‍यारे...” अक्‍लमंद आदमी ने नि:श्‍वास छोड़ी। उसकी आंखों के किनारे कुछ-कुछ लाल हो चुके थे, मानो अब वह रो देने वाला हो।
“मैं ऐसे नहीं जी सकता, मान्‍यवर। मुझे कोई न कोई उपाय ढूँढना ही होगा। लेकिन मैं क्‍या करूं?”
“मुझे विश्‍वास है कि हालात जरूर सुधरेंगे...।”
“क्‍या आप ऐसा सोचते हैं? निश्‍चय ह मैं इसकी उम्‍मीद करता हूँ। लेकिन अब जबकि मैंने आपको अपना दुखड़ा सुना दिया है और आपने इतनी हमदर्दी के साथ मेरा हौसला बढ़ाया है, मैं पहले से बेहतर महसूस कर रहा हूँ। इससे जाहिर होता है कि अभी भी दुनिया मेें कुछ इंसाफ है।”
हालांकि थोड़ेे ही दिन बाद वह फिर उदासी से भर उठा और अपना दुखड़ा सुनाने के लिए किसी दूसरे आदमी से मिला।
“मान्‍यवर!” उसने आंसू बहाते हुए सम्‍बोधित किया, “आप जानते हैं, जहां मैं रहता हूँ वह सुअरबाड़े से भी बदतर जगह है। मेरा मालिक मुझेे आदमी नहीं समझता। वह अपने कुत्‍ते को मुझसे दस हजार गुना बेहतर समझता है...।”
“उसका सत्‍यानाश हो!” दूसरे व्‍यक्ति ने इतने जोर से गाली दी कि गुलाम भौचक्‍का रह गया। यह दूसरा आदमी मूर्ख था।
“मैं जिसमें रहता हूँ, मान्‍यवर, वह टूटी-फूटी एक कमरे वाली झोपड़ी है, जिसमें सीलन, ठंडक और बेशुमार खटमल है। ज्‍यों ही मैं सोने जाता हूँ वे काटने लगते हैं। वह जगह बदबू से भरी हुई है और उसमें एक भी खिड़की नहीं है..।”
“क्‍या तुम अपने मालिक से एक खिड़की बनवाने के लिए कह सकते हो?”
“मैं कैसे कह सकता हूँ?”
“ठीक है, मुझे दिखाओ वह जगह कैसी है।”
मूर्ख आदमी गुलाम के पीछे-पीछे उसकी झोपड़ी में गया और मिट्टी की दीवार पर चोट करने लगा।
“यह आप क्‍या कर रहे हैं, मान्‍यवर?”
गुलाम डर गया था।
“मैं तुम्‍हारे वास्‍ते एक खिड़की खोल रहा हूँ।”
“यह ठीक नहीं होगा। मालिक मुझे मारेगा।”
“मारने दो।” मूर्ख आदमी दीवार पर चोट करता रहा।
“दौड़ो! एक डाकू घर तोड़ रहा है। जल्‍दी आओ नहीं तो वह दीवार ढहा देगा...।” चिल्‍लाते-सिसकते वह गुलाम पागलों की भांति जमीन पर लोटने लगा। गुलामों का एक पूरा दल ही उमड़ आया और उस मूर्ख को खदेड़ दिया। इस हल्‍ले-गुल्‍ले को सुनकर जो सबसे आखिर मेंं धीरे-धीरे बाहर आया, वह मालिक था।
“एक डाकू हमारा घर गिरा देना चाहता था। मैंने सबसे पहले खतरे की सूचना दी, और हम सबने मिलकर उस मूर्ख को खदेड़ दिया।” गुलाम ने ससम्‍मान और विजय गर्व से कहा।
“तुम्‍हारा भला हो!” मालिक नेे उसकी प्रशंसा की।
उस दिन हमदर्दी दिखाने कई लोग आये, जिनमें वह अक्‍लमंद आदमी भी था।
“मान्‍यवर, चूंकि मैंने अपने को काम लायक सिद्ध किया, इसलिए मालिक ने मेरी प्रशंसा की। आप सचमुच दूरदर्शी हैं, आपने उस दिन कहा था कि हालात सुधरेंगे”, वह बहुत आशान्वित और खुश होकर बोला।
“यह सही है...।” अक्‍लमंद आदमी ने जवाब दिया, और वह भी अपने पर खुश लग रहा था।
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एचसी वर्मा ने फ़ासीवादी संगठन आरएसएस के साथ अपने सम्बन्ध ज़ाहिर किये!
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आईआईटी कानपुर के जाने माने भौतिकी शिक्षक डॉ. हरीश चन्द्र वर्मा ने एक न्यूज़ पोर्टल को दिये अपने इण्टरव्यू में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के साथ अपने सम्बन्धों की सराहना की और ख़ुद को एक स्वंयसेवक भी बताया। हालाँकि, उनके अनुसार वे संघ में ज़्यादा सक्रिय नहीं है परन्तु संघ से जो उन्हें "संस्कार" मिले है, वे आज भी उनके साथ है। लेकिन इतना कहकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि उनके लिए प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन केवल गणितीय समीकरणों तक सीमित है एवं उनके चिन्तन के स्तर पर किसी भी तरह की वैज्ञानिकता मौजूद नहीं है। उनका चिन्तन पाखण्ड और कूपमण्डुकता से भरा हुआ है। वे प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन करने वाले उन "वैज्ञानिकों" की श्रेणी में है जो बस कक्षाओं और प्रयोगशालाओं की परिधि तक सीमित हैं तथा जिन्हें आम जनता की मुश्किलों और पीड़ा की कोई समझदारी नहीं है। या यूँ कहें कि उन्होंने जाबूझकर जनता की पीड़ा को लेकर आँखें मूंद रखी हैं।

देश में क़रीब 100 सालों से मौजूद राष्ट्रीय सेवक संघ का इतिहास गद्दारी और साम्प्रदायिक उन्माद फ़ैलाने का रहा है। संघ की जिस राष्ट्रभक्ति के कसीदे एच सी वर्मा पढ़ रहे हैं, उसकी हक़ीक़त यह है कि देश में जब स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन हो रहे थे, तब संघ के नेताओं ने न सिर्फ़ आन्दोलन से दूरी बनायी रखी बल्कि कई मौक़ों पर अंग्रेज़ी सत्ता का साथ भी दिया और क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी तक की। जब देश में अलग-अलग समुदायों के लोग अंग्रेज़ी सत्ता से मुक्ति पाने के लिए एकजुट हो रहे थे, तब इनके दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर अपनी किताबों में यह लिख रहे थे कि देश के हिन्दुओं को स्वतंत्रता प्राप्ति के आन्दोलन में भाग नहीं लेना चाहिए बल्कि अपनी शक्ति को मुस्लिमों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए बचाकर रखनी चाहिए। जिस संगठन का सर्वेसर्वा आज़ादी की लड़ाई के दौरान इस किस्म का ज़हर उगलता हो, उस संगठन से कोई वैज्ञानिक कैसा जुड़ा रह सकता है! आज़ादी के उपरान्त भी जनता के बीच अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करने में संघ परिवार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। 80 के दशक के उतरार्ध और 90 के दशक के पूर्वार्ध के दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विहिप द्वारा राम मन्दिर निर्माण के नाम पर पूरे देश को साम्प्रदायिक उन्माद के दावानल मे धकेल दिया गया। संघ द्वारा किये गये इस क़त्लेआम को सही ठहराने के लिए एच सी वर्मा भौतिकी के किस सिद्धान्त का हवाला देंगे। संघ के उन्मादी प्रचार से धर्मान्ध हुई हज़ारों कारसेवकों की भीड़ ने आयोध्या में 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्ज़िद गिरा दी। संघ के इस भयानक कुकृत्य को भी सही ठहराने के लिए क्या एच सी वर्मा भौतिकी के किसी समीकरण का सहारा लेंगे? क्या इस बात से एच सी वर्मा मुँह मोड़ लेंगे कि संघ से जुड़े बजरंग दल के सदस्यों ने ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टैंस और उनके बच्चों को ज़िन्दा जला दिया था? या इसके लिए वे क्या तर्क गढ़ेंगे कि गुजरात दंगों में नरोदा पाटिया नरसंहार में 97 मुस्लिमों की हत्या के लिए संघ परिवार से जुड़े बजरंग दल के सदस्य ज़िम्मेदार थे? कोई भी भौतिकी का सिद्धान्त या समीकरण संघ एवं उसके अनुषंगी संगठनों द्वारा किये गये इन मानवद्रोही गतिविधियों को सही नहीं ठहरा सकता है।

एच सी वर्मा ने जिस संगठन और विचारधारा की पक्षधरता चुनी है, वह मूल रूप से फ़ासीवादी और मानवद्रोही है, ऐसा कहने में कोई दो राय नहीं है। ऐसा करने वाले वे पहले बुद्धिजीवी नहीं है। ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी बड़े ख़तरनाक होते हैं, वे फ़ासीवाद की अग्रिम पंक्ति की रक्षा कतारों का काम करते है। फिलिप लेनार्ड और जोहांस स्टार्क जैसे जर्मन भौतिकशास्त्रियों ने भले भौतिकी के अलग-अलग क्षेत्रों में कई अवदान दिये हों, पर इतिहास आज भी उन्हें हिटलर व जर्मन फ़ासीवाद के समर्थकों के रूप मे याद रखता है। वही क्वांतम गतिकी के पुरोधाओं में से एक वर्नर हाईजेनबर्ग द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन नाभिकीय बम निर्माण कार्यक्रम में शामिल रहे, और एक तरह से जर्मन फ़ासीवाद की विजय के लिए कार्यरत रहे। इतिहास ऐसे ढेरों उदाहरणों से पटा पड़ा है, जहाँ तथाकथित वैज्ञानिकों ने जनता का पक्ष चुनने के बजाय आतातायी सत्ताधारियों का पक्ष चुना, तथा जो अन्त में समूची मानवता के शत्रु बन गये।

ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी जब बेशर्मी से प्रतिक्रियावादी शक्तियों के पक्ष में खड़े होते हैं और उनके समर्थन में प्रचार करते है, तब वे एक ऐसे वैचारिक धुंध का निर्माण करते है, जिसके ज़रिये वास्त्विकता को देखना कठिन हो जाता है। ग्रामशी के शब्दों में शासक वर्ग अपनी विचारधारा को थोपने के लिए अलग-अलग स्तरों पर प्रयास करता है, ताकि एकमात्र उसकी
विचारधारा ही प्रभावी विचारधारा के रूप में बनी रहे। एच सी वर्मा जैसे लोग बड़े शातिराना तरीक़े से देश में फ़ासीवादी विचारधारा का प्रचार कर रहे हैं। आज इस तरह के लोगों से सावधान रहने की ज़रूरत है। भाजपा द्वारा षड्यंत्रकारी तरीक़े से शिक्षण संस्थानों में संघी फासीवादी एजेण्डे को प्रसारित करने वाले लोगों को उच्च पदों पर बिठाया जा रहा है। यूजीसी, जेएनयू और आईसीएचआर में इसके उदाहरण हम देख चुके हैं।

इसलिए दिशा छात्र संगठन आज तमाम इंसाफ़पसन्द छात्रों से यह अपील करता है कि फ़ासीवादी राजनीति की कठपुतली बन चुके इन तथाकथित बुद्धिजीवियों का पर्दाफ़ाश किया जाये एवं इनका सामाजिक बहिष्कार किया जाये।
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सूरत में चुनावी नतीजे - भाजपा के षड्यन्त्र की कारगुज़ारी !
सूरत लोकसभा सीट के चुनावी नतीजे को रद्द किया जाये!
चुनने और चुने जाने के पूंँजीवादी जनवादी अधिकार पर हमले के ख़िलाफ़ एकजुट हो!

https://www.facebook.com/share/p/dYyeFeczLcL4gdoe/
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दो दिन पहले सूरत में भाजपा के उम्मीदवार मुकेश दलाल को निर्विरोध रुप से सूरत लोकसभा से निर्वाचित घोषित कर दिया गया। इसकी वजह थी कांग्रेस के प्रत्याशी का पर्चा रद्द हो जाना एवं अन्य 8 प्रत्याशियों द्वारा नामांकन वापस लिया जाना। लेकिन यह कहानी जितनी सीधी-सपाट दिख रही है, वह है नहीं। नामांकन रद्द होने और नामांकन वापस लेने के पीछे भाजपा द्वारा रचा गया घिनौना षड्यंत्र है। इस पूरे घटनाक्रम को सिलसिलेवार ढंग से देखा जा सकता है।

लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण के तहत सूरत लोकसभा क्षेत्र से 10 प्रत्याशी मैदान में थे। 20 अप्रैल को कांग्रेस प्रत्याशी के प्रस्तावकों ने ज़िला चुनाव अधिकारी के समक्ष यह दावा किया कि उन्होंने किसी भी तरह के नामांकन प्रपत्र पर कोई हस्ताक्षर नहीं किया है। जब चुनाव आयोग ने इन प्रस्तावकों को प्रपत्र में ग़लत हस्ताक्षर के मामले में अपना पक्ष रखने को बुलाया तब ये प्रस्तावक चुनाव आयोग के समक्ष उपस्थित ही नहीं हुए। 21 अप्रैल को ज़िला चुनाव अधिकारी द्वारा कांग्रेस प्रत्याशी का पर्चा इस वजह से ख़ारिज कर दिया गया कि उसके नामांकन प्रपत्र में प्रस्तावक के हस्ताक्षर ग़लत थे। इसके बाद, कांग्रेस के वैकल्पिक उम्मीदवार का पर्चा भी कुछ इसी तरह से रद्द क़रार दिया गया। और अभी कांग्रेस के सुनील कुंभानी और उसके प्रस्तावकों की कोई खोज-ख़बर नहीं है। चर्चा तो यह भी है कि सुनील कुंभानी की डील भाजपा के साथ हुई थी, जिसके बाद यह पूरा प्रकरण हुआ। प्रथमदृष्ट्या यही प्रतीत हो रहा है कि कांग्रेस का प्रत्याशी पहले से भाजपा से मिला हुआ था। अन्य प्रत्याशियों ने भी 22 तारीख़ को अपना नामांकन वापस ले लिया और इस तरह सूरत लोकसभा चुनाव में केवल भाजपा का प्रत्याशी बचा रह गया। यह पूरा घटनाक्रम कोई संयोगों का सिलसिला नहीं है। यह असल में भाजपा द्वारा रचे गए षड्यन्त्र का हिस्सा है।

यह भी देखने लायक है कि ऐसी ओछी षड्यन्त्रकारी राजनीति भाजपा उस लोकसभा सीट पर कर रही है, जहाँ वह पिछले तीन दशक से लगातार जीत रही है। परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि पिछले 5 सालों में भाजपा का जनाधार सूरत में घटा है, जीएसटी और बढ़ती महंँगाई के कारण सूरत के छोटे व्यापारियों और कुटीर उद्योगों में लगे लोगों की आमदनी घटी है। जिसके कारण भाजपा के प्रति उनमें रोष व्याप्त है। सम्भव था कि वहाँ की जनता भाजपा को इस चुनाव में चौंका देती। लेकिन, इसकी भनक पड़ते ही भाजपा ने चुनावी प्रक्रिया को ही हाईजैक कर लिया। अब तो यह भी बात सामने आ रही है कि गुजरात के गाँधीनगर सीट पर भी भाजपा दूसरे उम्मीदवारों को डरा धमका कर उनपर नामांकन वापस लेने का दबाव डाल रही है। उधर खजुराहो में भी कांग्रेस प्रत्याशी का नामांकन तकनीकी आधार पर रद्द कर दिया गया है और इन तमाम मसलों पर चुनाव आयोग हाथ पर हाथ धरे बैठा है। चण्डीगढ़ मेयर चुनाव की तरह ही सूरत के चुनावी नतीजे इस बात की ओर आगाह कर रहे हैं कि जीते कोई भी पर चुनावी नतीजों में जीत भाजपा की ही होगी। अब चाहे वह विपक्ष के बारे में झूठ फैला कर हो, चाहे उनके उम्मीदवारों को अगवा कर के या डरा धमका कर हो, चाहे विपक्षी नेताओं को ईडी-सीबीआई का डर दिखाकर या लालच देकर भाजपा में शामिल कर के हो, चाहे ईवीएम के ज़रिए नतीजों में फेरबदल कर के हो! कुछ भी कर के भाजपा को सत्ता में लाने के लिए संघ परिवार और भाजपा सरकार ने न सिर्फ़ अपने कैडर आधारित ढांँचे को झोंक दिया है बल्कि पूरी राज्य मशीनरी को इसमें लगा दिया है! चुनाव आयोग इनकी जेब में है और इनके लिए काम कर रही है। ऐसे में चुनावों में निष्पक्षता की उम्मीद करना एक शेखचिल्ली के सपने जैसी बात होगी।

सूरत के चुनाव परिणाम असल में हमारे चुनने और चुने जाने के जनवादी अधिकार पर हमले को दिखाता है। पूंँजीवादी लोकतन्त्र में जनता के पास जो रहे सहे जनवादी अधिकार है, उन्हें भी अपने फ़ासीवादी एजेण्डे के तहत भाजपा व संघ परिवार कुचलती जा रही है। हमारे इन जनवादी अधिकारों पर हमला असल में हमारे अस्तित्व पर हमला है। इसलिए हमें अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए जनता को सड़कों पर लामबन्द करना होगा। जनता की सबसे बड़ी दुश्मन फ़ासीवादी भाजपा पार्टी है। बेशक महज़ चुनावी हार से फा़सीवाद को नहीं हराया जा सकता है लेकिन हालिया स्थिति को देखते हुए इन चुनावों में उनकी वोटबन्दी करनी ज़रूरी है। यह इसलिए भी ज़रूरी है ताकि जनता को उनकी मांँगों पर एकजुट करने के लिए तमाम जनवादी अधिकारों को ख़त्म होने से बचाये रखा जाए। जनता भी भाजपा पार्टी की नीतियों से समझ चुकी है कि वो
अम्बानी-अडाणी जैसे पूंँजीपतियों के लिए नंगे रूप से काम करने वाली पार्टी है। भाजपा पार्टी द्वारा ऐसा षड्यन्त्र इसी बात को दिखाता है कि भाजपा को अपनी हार का डर है। लेकिन भाजपा की वोटबन्दी के साथ ही हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि निष्पक्ष रूप से चुनावी प्रक्रिया पूरी हो, इसके लिए जनता की सड़कों पर लामबन्दी ज़रूरी है। फ़ासीवादी भाजपा के इन प्रपंचों के ख़िलाफ़ अगर हम चुप्पी साधे बैठे रहे तो फ़िर हम इतिहास के गुनहगार साबित होंगे।

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) यह मांँग करती है कि चुनाव आयोग अनुच्छेद 324 द्वारा प्रदत्त शक्तियों के अनुसार सूरत लोकसभा चुनाव के नतीजे को रद्द करे। सूरत काण्ड की जांँच सुप्रीम कोर्ट के तत्वावधान में की जाये और इसमें शामिल दोषियों पर कार्रवाई की जाये।
8 घंटे के कार्य दिवस के लिए शहादत देने वाले मई दिवस के शहीदों को इंकलाबी सलाम
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मई दिवस का इतिहास
🖋️ अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग, अनुवाद: अभिनव सिन्हा
📱https://www.mazdoorbigul.net/archives/9657
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प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और कम्युनिस्ट साहित्य के प्रकाशक अलेक्ज़ेंडर ट्रैक्टनबर्ग द्वारा 1932 में लिखित यह पुस्तिका मई दिवस के इतिहास, उसके राजनीतिक महत्व और मई दिवस के बारे में मज़दूर आन्दोलन के महान नेताओं के विचारों को रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है।

पुस्तिका की पीडीएफ यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करें - http://www.mazdoorbigul.net/pdf/Bigul-booklet-04-May-Divas--Itihas.pdf

ये पुस्तक राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित की गयी है। प्रिण्ट कापी ऑर्डर करने के लिए यहाँ क्लिक करें - https://janchetnabooks.org/product-details?query=131